Monday, November 11, 2019

मेरा कविता संग्रह "कविता के बहाने "



परिंदे प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित मेरा कविता संग्रह "कविता के बहाने" अमेजन पर उपलब्ध है।  आप सब मित्रों से अनुरोध है कि इसे पढ़ें और अपनी बेबाक़ राय से अवगत कराएं।


Monday, September 14, 2015

पाँव के नीचे की जमीन

गाँव में
अब बच्चे नहीं खेलते
गुल्ली डंडा, कबड्डी, छुप्पा-छुप्पी
अब वे नहीं बनाते
मिट्टी की गाडी
नहीं पकड़ते तितलियाँ
गौरैयों और कबूतरों के
घोंसलों में देख उनके बच्चों को
अब वे नहीं होते रोमांचित   
अब उन्हें रोज नहीं चमकानी पड़ती
लकड़ी की तख्ती
ढिबरी की कालिख से मांज कर
और न ही उस पर बनानी पड़ती हैं
दूधिया सतरें खड़िया से
और अब वे नहीं रटते
पहाड़े
दो दूनी चार...

क्रिकेट, टीवी, कंप्यूटर
मोबाइल और सोशल मिडिया
के युग में,
खपरैल की जगह
स्कूल की पक्की इमारतों
और अंग्रेजी के पैबंद के
बावजूद
क्यों लगता है कि
इन बच्चों के लिए
हम  
नहीं तैयार कर पा रहे
वह ठोस जमीन
जहां बैठ
वे बुन सके सपने
भविष्य के
खड़े हो कर जिस पर वे
उड़ सके छू लेने को
आसमान.

Friday, July 24, 2015

ईश्वर की संताने



वे बच्चे
किसके बच्चे हैं
नाम क्या है उनका
कौन हैं इनके माँ बाप
कहाँ से आते हैं इतने सारे
झुण्ड के झुण्ड,
उन तमाम सरकारी योजनाओ के बावजूद
जो अखबारों और टीवी के
चमकदार विज्ञापनों में
कर रही हैं हमारे जीवन का कायाकल्प,
कालिख और चीथड़ो के ढकी
बहती नाक और चमकती आँखों वाली
जिजीविषा की ये अधनंगी मूर्तियाँ
जो बिखरी हुयी हैं
चमचमाते माल्स से लेकर
गंधाते रेलवे प्लेटफार्म्स तक,
बदनाम गलियों की तंग चौखटों से
भगवान के घरों की चौड़ी दालानों तक,
अभिशप्त बचपन में ही
बूढ़े हो जाने को,
अनवरत संघर्षरत
ढूढ़ रही जीवन
कूड़े के ढेर में
किसी लापरवाह ईश्वर की अनचाही संताने,
हमारी नपुंसक संवेदना के गवाह
क्या ये भी बच्चे हैं
इंडिया के
जो कि भारत है.

Tuesday, July 21, 2009

कौए

कौए
सुना है
विलुप्त हो रहें है।
क्या सच ?
पर क्या रमेसर की माँ
अब नहीं उड़ाएगी
मुंडेर से कौए?
पति के शहर से
लौटने की प्रत्याशा में।

क्या अब
झूठ बोलने पर
काला कौआ नहीं काटेगा
अब
नहीं पढेंगे बच्चे
'क' से कौआ।
कहानी सुनाती नानी
कैसे समझायेगी
उन्हें कि
क्या होता है मतलब
रानी से कौआ-हंकनी
बन जाने का।
जब दिखेंगे ही नहीं
कौए
कौन लेगा पिंडदान
पितृपक्ष में
क्या रहेंगे पितर
भूखे ही।
नई दुनिया में
नहीं रहेंगी
चीजें
बदरंग पुरानी दुनिया की
और कौए भी ।
पर रोज गुजरते हुए
गाजीपुर मुर्गामंडी के करीब से
देखता हूँ
कूड़े के पहाड़ पर मंडराती
कौओं की विशाल सेना।
पुरानी दुनिया के लिए
नई दुनिया में
बची है जगह
शायद यही।
नई दुनिया के लिए
कौओं का गायब होना
बस्तियों से,
कोई घटना नहीं।
वैस भी
सिर्फ़ अपने लिए जीने के दौर में
हर अस्तित्व है जरूरी
तभी तक
जब तब है वह मेरे काम का-
अभी और इसी वक्त ।
तो फ़िर चलिए पढ़ते हैं आज
मर्सिया कौओं का
कल हमारी बारी होगी।

Thursday, April 9, 2009

अशोक

दरवाजे पर का बूढ़ा अशोक
कहते हैं जिसे रोपा था
मेरे दादा ने,
खडा है अब भी,
अब जबकि
हमने बाँट ली है
उसके नीचे की एक एक पग धरती
घर, आंगन और
मन्दिर के देवता तक ।
खड़ा है वह अब भी
लुटाता हम पर अपनी छांह की आशीष ।

उसकी लचकती डालियाँ
बुलाती हैं अब भी
घसीट लो मचिया इधर ही,
आओ थोड़ी देर पढें
मुंशी जी का 'गोदान '
या गुरुदेव की 'गीतांजलि।'
या फ़िर आओ जमे
ताश की बाज़ी ही,
तब तक जब तक
दादी आकर फेंक न दें पत्ते
मीठी लताड़ के साथ।

पूर्वज
हम ज़रूर आते
बैठने तुम्हारी ठंडी छाँव में
पर नहीं लांघी जाती हमसे
हमारी ही खींची हुई
लक्ष्मण रेखाएं,
बाज़ार के दबाव से
कमज़ोर हुए हमारे पाँव
असमर्थ हैं पार कर पाने में
झूठे दंभ की ढूहों को।
सेंसेक्स के उतार चढाव में
धूल खा रहे हैं
प्रेमचंद और टैगोर
किसी पुरानी अलमारी के कोने में।

अब तो अगर कभी
वैश्वीकरण और बाज़ार से
,
मुक्त हुए ,
अगर मिली फुरसत बैठने की
फ़िर जिंदगी के साथ,
हम आयेंगे बैठने
फ़िर तुम्हारी छाया में।